28 अक्टूबर 2017

तुम्हारे हिज़्र में


गिर रही है आँख से शबनम तुम्हारे हिज़्र में
एक ही बस एक ही मौसम तुम्हारे हिज़्र में

क़तरे-क़तरे में शरारों सी बिछी है चांदनी 
बन गयी है हर ख़ुशी मातम तुम्हारे हिज़्र में

आईना-ओ-धूप के बिन अक्स न साया मेरा
किस क़दर तनहा हूँ मैं हमदम तुम्हारे हिज़्र में

खो गयी है अब नज़र की तिश्नगी जाने कहाँ 
अश्क़ में डूबा है ये आलम तुम्हारे हिज़्र में

दे भी जाओ अब सनम आकर सुकूं दिल को मेरे
या बता जाओ करें क्या हम तुम्हारे हिज़्र में

तुम नहीं तो सांस भी भारी लगे है बोझ सी
यूँ ही निकलेगा लगे है दम तुम्हारे हिज़्र में

फ़िक्र-ए-दुनिया है न खुद की है ख़बर कोई मुझे
अब ख़ुशी है न ही कोई ग़म तुम्हारे हिज़्र में

फूल उम्मीदों के सारे, आज कांटे बन गए 
हर क़दम पतझर का है मौसम तुम्हारे हिज़्र में

एक-एक लम्हा लगे है अब क़यामत सा नदीश
ख़्वाब भी होने लगे हैं नम तुम्हारे हिज़्र में


हिज़्र- जुदाई, विरह
शरारों- अंगारों
तिश्नगी- प्यास

23 टिप्‍पणियां:

  1. क्या बात बेहद शानदार गज़ल है लोकेश जी।वाह्ह्ह...👌👌

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  2. वाह..
    याद गया इकबाल साहब का ये श़ेर
    यूँ गुमाँ होता है गर्चे है अभी सुबह-ए-फ़िराक़
    ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात
    सादर

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  3. शानदार गजल नरम भावुक दिल को छूती
    सभी शेर एक से बढ़कर एक।
    शुभ दिवस।

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  4. नमस्ते,
    आपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
    ( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में
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