अश्क़ों की हथेली पे
दामन के ख़्वाब सजा के आया हूँ
दामन के ख़्वाब सजा के आया हूँ
मैं अपनी वफ़ा के सूरज की
इक रात बना के आया हूँ
इक रात बना के आया हूँ
नादान हवाएं क्यों इसको
इक प्यार का मौसम समझ रहीं
इक प्यार का मौसम समझ रहीं
मैं अहले-जहां के सीनों में
तूफान उठा के आया हूँ
तूफान उठा के आया हूँ
आँखो के समंदर में शायद,
बेचैनी करवट लेती है
बेचैनी करवट लेती है
तेरी यादों के जंगल में,
इक बाग बिठा के आया हूँ
इक बाग बिठा के आया हूँ
इतराती है खुशबू ख़ुद पे,
काँटों में गहमागहमी है
काँटों में गहमागहमी है
मैं सन्नाटों के सहरा में,
कुछ फूल खिला के आया हूँ
कुछ फूल खिला के आया हूँ
दुनिया के बंधन से तुझ तक,
बस चार कदम की दूरी थी
बस चार कदम की दूरी थी
मत पूछ कि मैं तुझ तक
कितने सैलाब हटा के आया हूँ
कितने सैलाब हटा के आया हूँ
ये अंधियारे कुछ देर के हैं,
अब तू नदीश मायूस न हो
अब तू नदीश मायूस न हो
मैं मुठ्ठी में इच्छाओं की
इक भोर छिपा के आया हूँ
इक भोर छिपा के आया हूँ
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 29 नवम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीया
हटाएंइतराती है खुशबू ख़ुद पे, काँटों में गहमागहमी है
जवाब देंहटाएंमैं सन्नाटों के सहरा में, कुछ फूल खिला के आया हूँ
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
बहुत बहुत आभार आपका
हटाएंये अंधियारे कुछ देर के हैं, अब तू नदीश मायूस न हो
जवाब देंहटाएंमैं मुठ्ठी में इच्छाओं की इक भोर छिपा के आया हूँ
बेहतरीन और लाजवाब सृजन ।
बहुत बहुत आभार आपका
हटाएंवफ़ा के सूरज की रात !
जवाब देंहटाएंवाह जबरदस्त भाव
उम्दा/बेहतरीन।
बहुत बहुत आभार आपका
हटाएंवाह! बेहद खूबसूरत ग़ज़ल।
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है ।
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बहुत बहुत आभार आपका
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