याद से बारहा तेरी उलझते रहते हैं
सिमटते रहते हैं या फिर बिखरते रहते हैं
सिमटते रहते हैं या फिर बिखरते रहते हैं
तेरा ख़याल भी छू ले अगर ज़ेहन को मेरे
रात दिन दोपहर हम तो महकते रहते हैं
इसलिये ही बनी रहती है नमी आँखों में
ख़्वाब कुछ छुपके पलक में सुबकते रहते हैं
वाह बेहतरीन
जवाब देंहटाएंबेहद शुक्रिया
हटाएंउनके ख़्वाब आँखों में नमी बन के उतर आते हैं ..
जवाब देंहटाएंलाजवाब शेर ग़ज़ल के ...
बेहद शुक्रिया
हटाएंवाह वाह उम्दा लोकेश जी
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा ख्वाब दर्द समेटे ।
जवाब देंहटाएंबेहद शुक्रिया
हटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबेहद शुक्रिया
हटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 05 अगस्त 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय
हटाएं..... लाजवाब शेर
जवाब देंहटाएंवाह्ह्हह....बेहद लाज़लाब...हमेना की तरह एक हृदयस्पर्शी ग़ज़ल.. लोकेश जी..बहुत अच्छी लगी👌
जवाब देंहटाएंबेहद शुक्रिया
हटाएंlazawab sher hain...
जवाब देंहटाएंबेहद शुक्रिया
हटाएंबेहद शुक्रिया
जवाब देंहटाएंवाह, बेहतरीन लिखा है आपने
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबेहद शुक्रिया
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आपका
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