किस्मत को तो मुझसे पुराना बैर रहा है
हर वक़्त तू भी तो खफ़ा सा, खैर रहा है
हासिल यही है तज़ुर्बा-ए-ज़िन्दगी मुझे
किरदार तो अपनों में मेरा ग़ैर रहा है
मुझको बहुत अज़ीज़, फ़क़ीरी है मेरी
हाँ गुम्बदों के सर पे मेरा पैर रहा है
फिरता रहा बार-ए-अना लिये तमाम उम्र
बनके लाश जो पानी में तैर रहा है
पल भर की जुदाई में दिए हैं हज़ार तंज़
कैसे नदीश ये तेरे बगैर रहा है
बार-ए-अना- अहंकार का बोझ
वाह्हह... जबरदस्त...👌👌
जवाब देंहटाएंलोकेश जी बेहद शानदार गज़ल।
बहुत बहुत आभार आदरणीया
हटाएंबहुत शानदार हर शेर उम्दा🙏🙏❤
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका
हटाएंशानदार रचना लोकेश जी
जवाब देंहटाएंआदरणीय लोकेश जी ---शानदार रचना !!!!!जीवन के
जवाब देंहटाएंशाश्वत क्रूर सत्य को उकेरता ये शेर क्या खूब और काबिले दाद है !!!!!!
फिरता रहा बार-ए-अना लिये तमाम उम्र
बनके लाश जो पानी में तैर रहा है-- वाह और सिर्फ वाह !!!!
बहुत बहुत आभार आदरणीया
हटाएंआपके उत्साहवर्धक शब्द बेहतर करने के लिए प्रेरित करते हैं
आपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.com/2018/07/77.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय
हटाएंवाह बहुत उम्दा रचना ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीया
हटाएंबहुत ही सुंदर रचना, नदीश जी।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीया
हटाएंबेहद शुक्रिया
हटाएंअलग अंदाज के अशआर, अच्छी ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंबेहद शुक्रिया
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