मकानों के दरम्यान कोई घर नहीं मिला
शहर में तेरे प्यार का मंज़र नहीं मिला
झुकी जाती है पलकें ख़्वाबों के बोझ से
आँखों को मगर नींद का बिस्तर नहीं मिला
सर पे लगा है जिसके इलज़ाम क़त्ल का
हाथों में उसके कोई भी खंज़र नहीं मिला
किस्तों में जीते जीते टुकड़ों में बंट गए
खुद को समेट लूँ कभी अवसर नहीं मिला
फिरता है दर्द सैकड़ों लेकर यहां नदीश
अपनों की तरह से कोई आकर नहीं मिला
लाजवाब रचना 👌
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर गजल हर बार की तरह बेमिसाल
जवाब देंहटाएंबेहद शुक्रिया
हटाएंबहुत सुन्दर गजल....
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह
वाह!!!
बेहद शुक्रिया
हटाएंThanks
जवाब देंहटाएंवाह, बेहतरीन गज़ल .
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय
हटाएंलाजवाब गज़ल ।
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीया
हटाएंग़ज़ब ...
जवाब देंहटाएंआँखों को नींद का मंज़र नहि मिला ... हसीन शेर हैं सभी ...
आभार आदरणीय
हटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 02 जुलाई 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीया
हटाएंवाह!!लाजवाब!!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार
हटाएंफिरता है दर्द सैकड़ों लेकर यहां नदीश
जवाब देंहटाएंअपनों की तरह से कोई आकर नहीं मिला--
आदरणीय लोकेश जी हर बार ही आपके अशार सराहना से परे होते हैं |
जीवन की कडवी सच्चाईयों से रूबरू कराते है सभी अशार | हार्दिक शुभकामनायें |
बेहद आभार आदरणीया
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