तूफ़ान में कश्ती को उतारा नहीं होता
उल्फ़त का अगर तेरी किनारा नहीं होता
ये सोचता हूँ कैसे गुजरती ये ज़िन्दगी
दर्दों का जो है गर वो सहारा नहीं होता
मेरी किसी भी रात की आती नहीं सुबह
ख़्वाबों को अगर तुमने संवारा नहीं होता
बढ़ती न अगर प्यास ये, आँखों की इस कदर
अश्क़ों को ढलकने का इशारा नहीं होता
महरूम हुए लोग वो लज्ज़त से दर्द की
जिनको भी दर्दे-ग़ैर गवारा नहीं होता
उभरे है अक़्स तेरा ख़्यालों में जब मेरे
आँखों मे कोई और नज़ारा नहीं होता
महके है तेरी याद से वो पल बहुत नदीश
जो साथ तेरे हमने गुज़ारा नहीं होता
आपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.in/2018/03/62.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबेहद शुक्रिया आदरणीय
हटाएं"मेरी किसी भी रात की आती नहीं सुबह
जवाब देंहटाएंख़्वाबों को अगर तुमने संवारा नहीं होता"
बहुत खूब......, बहुत खूबसूरत गज़ल .
बहुत बहुत आभार
हटाएंबहुत ख़ूब
जवाब देंहटाएंबेहद शुक्रिया
हटाएंतूफ़ान में कश्ती को उतारा नहीं होता
जवाब देंहटाएंउल्फ़त का अगर तेरी किनारा नहीं होता
खूबसूरत गजल !
बेहद शुक्रिया
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना गुरुवार २९ मार्च २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बेहद शुक्रिया
हटाएंउभरे है अक़्स तेरा ख़्यालों में जब मेरे
जवाब देंहटाएंआँखों मे कोई और नज़ारा नहीं होता
....वाह...बहुत उम्दा
सादर आभार
हटाएंबहुत खूब ...
जवाब देंहटाएंजब उनका अक्स आ जाये तो किसी और को देखने की चाहत भी कहाँ ..
लाजवाब शेर हैं सभी इस ग़ज़ल के ....
बहुत बहुत आभार
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बधाई इस रचना के लिए
वाह वाह बेहद खूबसूरत सर
जवाब देंहटाएंहमें भी ग़ज़ल लिखना सिखा दीजिये
बहुत बहुत आभार
हटाएंजी जरूर ,