पलक की सीपियों में अश्क़ को गौहर बनाता हूँ
मैं तन्हाई की दुल्हन के लिए जेवर बनाता हूँ
कभी चंपा कभी जूही कभी नर्गिस की पंखुडियां
तेरे वादों को मैं तस्वीर में अक्सर बनाता हूँ
मेरी मंज़िल की राहों में खड़ा है आसमां तू क्यूँ
ज़रा हट जा मैं अपने हौसले को पर बनाता हूँ
ज़ेहन में चहचहातें हैं तुम्हारी याद के पंछी
मैं जब भी सोच में कोई हसीं मंज़र बनाता हूँ
जेहन में चहचहाते हैं तुम्हारी याद के पंछी ....
जवाब देंहटाएंवाह ... लाजवाब शेर है इस ग़ज़ल का ... सीधे मन में उतरता है ...
आभार आदरणीय
हटाएंअतिसुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार
हटाएंआदरनीय लोकेश जी -- हमेशा की तरह आज की रचना का भी हर शेर एक नयी पहचान रखता है और मन को छू लेने वाला है | सभी शेर मुझे बहुत अच्छे लगे | नितांत नयी तरह के शेर हैं और अछूते भाव हैं | हार्दिक बधाई आपको |
जवाब देंहटाएंमेरी मंज़िल की राहों में खड़ा है आसमां तू क्यूँ
जवाब देंहटाएंज़रा हट जा मैं अपने हौसले को पर बनाता हूँ
गजब लिखा
आभार आदरणीया
हटाएंउम्दा रचना हर बार की तरह अपने वीधा मे आपखा पूरण अधिकार है ।
जवाब देंहटाएंविधा मे पढे।
हटाएंआभार आदरणीया
हटाएंवाह बेहतरीन उन्वान ..👌👌👌👌
जवाब देंहटाएंहर शेर अपने आप में मुकम्मल ....
आभार आदरणीया
हटाएंलाजवाब 👌👌👌
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आपका
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